श्रीमद् भगवत गीता में योग के लिए आवश्यक नियम अहिंसा, ब्रह्माचर्य, आत्मशुद्धि, अन्नशुद्धि संगशुद्धि, बताया गया है : NN81

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श्रीमद् भगवत गीता में योग के लिए आवश्यक नियम अहिंसा, ब्रह्माचर्य, आत्मशुद्धि, अन्नशुद्धि संगशुद्धि, बताया गया है : NN81

21/06/2024 | June 21, 2024 Last Updated 2024-06-20T19:10:57Z
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 *श्रीमद् भगवत गीता में योग के लिए आवश्यक नियम अहिंसा, ब्रह्माचर्य, आत्मशुद्धि, अन्नशुद्धि संगशुद्धि, बताया गया है- ब्रह्माकुमारी रेखा दीदी*     



जिला गुना से गोलू सेन की रिपोर्ट 




 प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के सेवा केंद्र द्वारा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के उपलक्ष में दो दिवसीय योग शिविर का आयोजन किया गया जिसमें ब्रह्माकुमारी रेखा दीदी ने बताया कि गीता ही योग शास्त्र है गीता के हर एक अध्याय के अंत में लिखा है की श्रीमद् भगवत गीतासु उपनिषदसु ब्रह्माविद्याया योगशास्त्रे। उन्होंने योग विषय का विस्तार पूर्वक वर्णन करते हुए बताया की आत्मा में स्थित होकर सहज ही परमात्मा से मन को जोड़ना अथवा परमात्मा से संबंध स्थापित करके आंतरिक सुख की स्थिति में स्थित होना ही योग है। गीता अध्याय 6 श्लोक 28, अध्याय 7 श्लोक एक, अध्याय 6 श्लोक 19, अध्याय 6 श्लोग 15, गीता में योग शब्द के लिए युज्ज अर्थात जोड़ना शब्द का प्रयोग किया गया है गीता में योगी के लिए कहा गया है कि जिस प्रकार वायु से रक्षित होने पर दीपशिखा अपने स्थान पर अचल हो जाती है वैसे ही जो पुरुषार्थी अपने मन को व्यर्थ संकल्पों से रक्षित करके परमात्मा की स्मृति में एक टिक कर देता है और आत्मा के स्वरूप में स्थित हो जाता है वही योगी है अध्याय 6 श्लोक 19, जो मुझे अनन्य भाव से याद करता हैं वही योगी हैं अध्याय 8 श्लोक 14, जो मेरी मत पर चलता है वही योगी है अध्याय 10 श्लोक 9, जो कर्मेंद्रियों पर विजय प्राप्त करता है वही योगी है अध्याय 2 श्लोक 61,68 गीता में योग के लिए आवश्यक नियम भी बताए गए हैं अहिंसा, ब्रह्माचर्य, आत्मशुद्धि, अन्नशुद्धि संगशुद्धि, हर प्रकार की शुद्धि प्रतिदिन प्रातः ज्ञान अध्ययन आदि नियमों का पालन करने की बात कही गई है अध्याय 16 श्लोक 1,2,3,अध्याय 6 श्लोक 4 गीता में योग अभ्यास के लिए आसन के बारे में कहा गया है की आत्मा का आसन स्थिर हो अध्याय 6 श्लोग 11, हमारा मन शांत हो अध्याय 6 श्लोक 4, भगवान ने किसी विशेष आसन के लिए नहीं कहा योग अभ्यास के लिए किसी हट क्रिया की आवश्यकता नहीं है इसके अतिरिक्त भगवान ने यह भी कहा है कि जो शरीर को कष्ट देते हैं वे आसुरी नियम वाले और दम्भी हैं अध्याय 17 श्लोक 5,6, ब्रह्माकुमारी रुक्मणी दीदी योग के लक्षण बताते हुए कहा कि गीता में कहा गया है कि उसकी सभी से मैत्री होती है वह सर्व के प्रति करुणा भाव रखता है वह निर्मोही तथा निरंहकार होता है, क्षमाशील होता है सुख-दुख में सदा समान होता है वह सदा संतुष्ट होता है वह स्वयं ना दुख लेता है ना दुख देता है वह बाहर से पवित्र होता है अध्याय 12 श्लोक 13,14, 15, 16 गीता में योग के बारे में बताया गया है कि आत्मा और परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करने पर ही इस योग का अभ्यास किया जा सकता है इसलिए इसका नाम ज्ञानयोग भी है अध्याय 3 श्लोक 3, कर्म करते हुए योग में स्थित हो बो अतः यही योग कर्म योग भी है अध्याय 2 श्लोक 48 योग मार्ग में मन को प्रभु ही में लगाना होता है इसलिए यह मनोयोग भी है अध्याय 18 श्लोक 65, बुद्धि को परमात्मा को अर्पण करना होता है इसलिए यह बुद्धियोग भी है अध्याय 8 श्लोक 7, इस योग की अभ्यास के लिए शरीर को कष्ट देना देने की जरूरत नहीं है इसलिए यह सहजयोग भी है अध्याय 17 श्लोक 5, 6, भगवान ने कहा है कि कर्मों का संन्यास नहीं करना कर्म सन्यास से कर्मयोग उत्तम है अध्याय 5 श्लोक 2, उन्होंने बुद्धि द्वारा ही संन्यास करने का आदेश दिया है इसलिए यह सन्यास योग भी है अध्याय 3 श्लोक 30, अध्याय 6 श्लोक 2, गीता में कहा गया है कि स्वर्ग को प्राप्त होकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा इसलिए यह राजयोग भी है अध्याय 2 श्लोक 37, यह सब एक ही योग के नाम है गीता में योग के बारे में सिद्धि बताते हुए कहा गया है की बुद्धि का योग परमात्मा से हो तो मनुष्य के दुखों का अंत हो जाता है अध्याय 2 श्लोक 65, योग द्वारा कर्मों में कुशलता आती है अध्याय 2 श्लोक 50, ईश्वरीय अनुभूति करता है अध्याय 12 श्लोक 8 अंत में परमधाम को लूट जाता अध्याय 5 श्लोक 6,24,25,26, अध्याय 6 श्लोक 45, योग की सही विधि विधान को जानकर मनुष्य को चाहिए परमात्मा से योग युक्त हो जाए।